मोती के बूंद सा
पल पल सजा जिन्दगी का धार|
हंसोहंसाओ और मुस्कुराओ
करो जीवन का सोलह सिंगार|
झूम के गाओ नाचो
ये जीवन है राग मल्हार|
पतझर में न उदास हो
आगे फिर है मौसम बहार|
मोती के बूंद सा
पल पल सजा जिन्दगी का धार|
हंसोहंसाओ और मुस्कुराओ
करो जीवन का सोलह सिंगार|
झूम के गाओ नाचो
ये जीवन है राग मल्हार|
पतझर में न उदास हो
आगे फिर है मौसम बहार|
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कभी सान्त समंदर में
कोलाहल सा मचाता हूं
मैं लहर हूँ, किनारों से टकराता हूँ
समुन्दर में लौट आता हूँ ।
कभी ज्वारभाटा बन के
आसमानों से बतियाता हूँ
तूफ़ान बन के कभी कभी
मैं कहर ढाता हूँ।
बन के बारिष कभी
मैं धरती पे छा जाता हूँ
नदी तलाब ताल तलैया बन के
समुन्दर मैं लौट आता हूँ।
बारिष, तूफ़ान ज्वारभाटा
है छनिक जो टिक नही पता
मेरा तेरा प्रेम अमर है
लहर समंदर का मेल अमर हैं।
जिबन के भटकाब का
तू ही अंत ठिकाना है
लहर उठे कितना भी ऊंचा
समंदर में मिल जाना है।
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बारिस की
पहली बूँद के साथ
तपती धरती के सिने से
उठती खुसबु,
जवानी के
दहलीज पे
रखी कदमो का
पहला आरजू|
सूरज के किरण की
पहली लाली,
जिसके आने से पहले
दिल रहा था खाली|
बहारो के मौसम का
पहला फूल,
ना जाने कैसे
कर गये हम भूल|
बूंदे फिर बारिस
फिर बिजली की घनघन,
किस तरह सहमे थे
कितना डरा था मन|
दोपहर की दहकती
गर्म किरण,
आरजूओ के बीच
थी एक जलन|
फुलो का खिलना
खिलके मुरझना,
कभी तुझ से मिलना
मिलके बिचछरणा|
वो बारिस के थमने के
बाद का सन्नाटा,
हम जो तरसे थे
पानी को ज़रा सा|
कितनी सुहानी थी
साम का मंज़र,
कैसे जिए थे
हम तुम बिछर कर|
पतझर का मौसम
भी आया वाहा पर,
लगाए थे बगीचे
हम ने जहाँ पर|
वो पहले सपने
वो पहला आरजू,
कभी गर हो फ़ुर्सत
हो लेना रूबरू|
रही गर धरती
फिर आएगी बारिस,
मगर क्या तब तक
जिंदा रहेगी ये खावहिस|
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The WordPress.com stats helper monkeys prepared a 2015 annual report for this blog.
Here’s an excerpt:
A San Francisco cable car holds 60 people. This blog was viewed about 1,000 times in 2015. If it were a cable car, it would take about 17 trips to carry that many people.
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ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?
समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।
समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।
समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।
तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ’ मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।
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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग – निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेहँदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका – बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।
-रामधारी सिंह दिनकर
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राजनैतिक ओहदों का ना कर तूँ अहंकार
जनता के सामने झुंकना पड़ा है अनैतिकता को बार बार
अपनों का कैसे कर सकते हो तिरिष्कार
इस मिट्टी पे न्योछावर है हर एक रक्त की धार
प्रचंड प्रलभ था हमारे पूर्वजो का प्रहार
जिसकी देन है हमारे देश की वर्तमान जीवंत आकार
राजनैतिक ओहदों का ना कर तूँ अहंकार
जनता के सामने झुंकना पड़ा है अनैतिकता को बार बार
आज मिट्टी कर रही है पुकार
सांसें दे रही ज़िन्दगी को दुत्कार
वेदभाव को हम करते हैं इंकार
करना है तो पुरे सम्मान के साथ करो हमे स्वीकार
राजनैतिक ओहदों का ना कर तूँ अहंकार
जनता के सामने झुंकना पड़ा है अनैतिकता को बार बार
है इतिहास साक्षात्कार
दुर्योधन ना निकाल पाया मन से विकार
पांच पांडवो से हुई सो कौरव की हार
राजनैतिक ओहदों का ना कर तूँ अहंकार
जनता के सामने झुंकना पड़ा है अनैतिकता को बार बार
सोच समझ के कर तूँ विचार
बंद करो, बंद करो, अब तो ये अत्याचार
साक्षात पक्षपात की नहीं चलने देंगे कारोबार
राजनैतिक ओहदों का ना कर तूँ अहंकार
जनता के सामने झुंकना पड़ा है अनैतिकता को बार बार
तूँ हवा को क्या रोकेगा
तूँ फ़िज़ा को क्या बदलेगा
समुन्दर की धार है हम
इस देश की आन, मान और शान है हम
मधेशी है हम, मधेशी है हम
जय मधेश ! !!
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