एक निर्माणाधीन शहर मे
हरे भरे मैदानो के बीच
कुछ पेड़ो के साथ
एक दिन उग आया घर मेरा,
मेरे साथ् साथ् बढ्ती बस्ति मे
कभी साथ साथ रहते थे
कुछ चाई चाई करते तोते
कुछ काँ काँ करते कौवे
उधम होता था गिल्हरियो का
और दाना चुगने आती थि गोरैया,
फिर एक एक कर गायब होने लागे
घास के मैदान , सिसम के पेड
मछली के तालाब,पछियो का सोर
तोते, कौवे, गिल्हरियां,
अब मै समझा
मेरा घर एक बिज था
कंक्रिट के जंगल का
जो आहिस्ता पसरती गई
मेरे पास पडोसो मे
और उग आई पेड़ो के जगह
मकाने
आज मेरा शहर बडा है
आज चिडियों के चाह्चाह्ट कि जगह
सुनयि देति है मोटर का सोर
हरि भरि मैदान बदल गए है
काले लम्बे सडकों मे
आज भी बडी बडी मकनो के नीचे
दफन है कुछ पेड ,कुछ मैदाने
कुछ चिडियों का सोर
और कुछ गिल्हारियो कि लाश
अब मै समझा
मेरा घर एक बिज था
कंक्रिट के जंगल का।।
Pravin kumar karn
प्रविण कुमार कर्ण
तिथि : २०८१-०१-१२
Date : 24.04.2024
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